Thursday, June 18, 2009

यह किसने आग लगाई है?

यह किसने आग लगाई है?
जहां लोग प्रीत की पींग भरे, बगिया महके,
खुशियां चहके,
अब वहां उदासी छाई है।
यह किसने आग लगाई है?
यह खंजर किसने घोंपा है?
किससे पाया यह धोखा है?
कुछ अपने ही पथभ्रष्ट हुए,
तब मिला उन्हें यह मौका है।
यह किसने खोदी खाई है?
जो पीड़ा हुई पराई है।
भाई को भाई काट रहा,
जाति-मजहब में बांट रहा,
किसकी यह आह लगी घर को?
अपना ही घर को चाट रहा।
अब चमन हुआ हरजाई है।
यह किसने नजर लगाई है?
कुछ छिपे सपोले विष घोलें,
गैरों की भाषा वो बोलें,
चंद चांदी के टुकड़ों के लिए
घर का ये भेद उन्हें खोलें।
लो भाई बने आतताई हैं।
जो खोदें घर में खाई हैं।
-ओमप्रकाश नापित (उदय)

Saturday, June 13, 2009

patrika

पत्रिका´ सब सूं न्यारी छ

मायड़ ममता सूं ज्यो प्यारी,
राजस्थान पत्रिका हारी,
खबरां बांचै लोग हजारी,
या की साख निराळी छ,
पत्रिका´ सब सूं न्यारी छ।

बरसां पैली पांव जमाया,
जाणै कतरा दुज्ख बिसराया,
पण वे कदै नहीं घबराया,
बाबो´ हिमत राखी छ,
पत्रिका´ सब सूं न्यारी छ।

पाठक मांई पैठ जमाई,
राखी सदां संग सच्चाई,
जनता री आवाज उठाई,
कलम कूं धार बनाई छ,
पत्रिका´ सब सूं न्यारी छ।

काम संग नाम घणो कमायो,
मिलजुल या परिवार बढ़ायो,
दुनिया म परचम लहरायो,
जग म कीरती पाई छ,
पत्रिका´ सब सूं न्यारी छ।

ओमप्रकाश नापित ´उदय´

Monday, June 8, 2009

गजबण नार


बात करे तो बोल सुहाणा
चंचल नैन कटार,
कर सोल़ा सिणगार
चाली देखो गजबण नार।
सिर माथे बोरलो सुहावै,
नाक नथणिया हिलती जावै,
पैर धरै तो टणका बाजै
हिवड़ा दमके हार।
कर सोल़ा सिणगार,
चाली देखो गजबण नार।
गजभर घूंघट, माथे पर लट,
सिर पर धर घट, चाली पनघट,
भरे बेवड़ो चहक चहक कर
चुड़ला करै पुकार।
कर सोल़ा सिणगार,
चाली देखो गजबण नार।

लेय बिलौणी छाछ हिलावै,
बछिया बाड़ा माय रहावै,
दूध दुहै तो अंगुल्या मटकै
कलछा माही धार।
कर सोल़ा सिणगार,
चाली देखो गजबण नार।
ओमप्रकाश नापित ´उदय´

Wednesday, June 3, 2009

कब सुधरेंगे

बैंकडकैती, लूटपाट, मारपीट, बलात्कार, ठगी जैसे गंभीर अपराध होना अब आम बात हो गई है। अपराधी बिना खौफ वारदात को अंजाम दे रहे हैं और पुलिस है कि हाथ-पैर मारने के अलावा कुछ नहीं कर पा रही है। लुट-पिट रही जनता की पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं है। पीड़ा बयां करे भी तो भला किसे। अलबत्ता तो पीçड़तों की पुलिस सुनवाई ही नहीं करती और करती भी है तो चप्पलें घिसने तक न्याय मिलना संभव नहीं होता। मामले दर्ज कराने से लेकर न्याय पाने तक पीçड़त की जेब अच्छी खासी ढीली हो जाती है। थाने से लेकर कोर्ट कचहरी तक के चक्कर लगाते-लगाते पीçड़त को इतना सबक मिल चुका होता है कि वह दोबारा ऐसे मामलों में चुप्पी साधना ही बेहतर समझता है। सब जगह व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते बिना कुछ लिए-दिए न्याय की उमीद करना बेमानी है। अव्वल तो पुलिस महकमा इतना भ्रष्ट है कि वहां बिना घूस दिए कार्रवाई ही संभव नहीं होती और यदि कुछ उसूलों वाले ईमानदार अफसरों की वजह से कार्रवाई हो भी तो ऊपरी दबाव के चलते ऐसा संभव नहीं हो पाता। कई मर्तबा सफेदपोश जनप्रतिनिधियों का दबाव पुलिस वालों के हाथ बांधने को विवश कर देता है। हाल ही के दो उदाहरण इसके लिए काफी हैं। शहर के एक थानेदार को नेता के बेटे को गिरतार करने पर हाथोंहाथ तबादले की सौगात मिली तो एक अन्य थानेदार को अपनी ही महकमे के रिटायर बड़े हाकिम के कोप का शिकार होना पड़ा। उन्हें भी थाने से हटा दिया गया।